राजेन्द्र प्रसाद_5

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद
असहयोग आंदोलन
राजेन्द्र प्रसाद इस बात से बहुत क्रोधित हो उठे और उन्होंने निर्भीकता से बिहार की जनता से गांधीजी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन को स्वीकार करने की अपील की। यह ऐसा समय था जब देश के लिये कोई भी बलिदान बहुत बड़ा नहीं था। बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी फलती-फूलती वकालत छोड़कर पटना के निकट सनअ 1921 में एक नेशनल कॉलेज खोला। हज़ारों छात्र और प्रोफ़ेसर जिन्होंने सरकारी संस्थाओं का बहिष्कार किया था यहां आ गये। फिर इस कॉलेज को गंगा किनारे सदाकत आश्रम में ले जाया गया। अगले 25 वर्षों के लिये यह राजेन्द्र प्रसाद जी का घर था। बिहार में असहयोग आंदोलन 1921 में दावानल की तरह फैल गया। राजेन्द्र प्रसाद दूर-दूर की यात्रायें करते, सार्वजनिक सभायें बुलाते, जिससे सबसे सहायता ले सकें और धन इकट्ठा कर सकें। उनके लिये यह एक नया अनुभव था। "मुझे अब रोज सभाओं में बोलना पड़ता था इसलिये मेरा स्वाभाविक संकोच दूर हो गया..." साधारणतया क़्ररीब 20,000 लोग इन सभाओं में उपस्थित होते। उनके नेतृत्व में गांवों में सेवा समितियों और पंचायतों का संगठन किया गया। लोगों से अनुरोध किया गया कि विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करें और खादी पहनें व चर्खा कातना आरम्भ करें। यह अनिवार्य था कि राजनीति का दृश्य बदले। राजेन्द्र प्रसाद ने जागरूकता का वर्णन इस प्रकार किया है, "अब राजनीति शिक्षितों और व्यवसायी लोगों के कमरों से निकलकर देहात की झोपड़ियों में प्रवेश कर गई थी और इसमें हिस्सा लेने वाले थे किसान।"


सरकार का दमन चक्र

सरकार ने इसके उत्तर में अपना दमन चक्र चलाया। हज़ारों लोग जिनमें लाला लाजपत राय, जवाहर लाल नेहरू, देशबन्धु चितरंजन दास और मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे प्रसिद्ध नेता गिरफ्तार कर लिये गये। आंदोलन का अनोखापन था उसका अहिंसक होना। लेकिन फरवरी सन 1922 में गांधीजी ने 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' की पुकार दी किन्तु 'चौरी चौरा', उत्तर प्रदेश में हिंसक घटनायें होने पर गांधी जी ने सविनय सवज्ञा आंदोलन स्थगित कर दिया। उन्हें लगा कि हिंसा न्यायसंगत नहीं है। और राजनैतिक सफलता को कुछ समय के लिये स्थगित किया जाना ही अच्छा है। जिससे नैतिक असफलता से बचा जा सके। कई नेताओं ने आंदोलन को स्थगित करने के लिये गांधी जी की कड़ी आलोचना की लेकिन राजेन्द्र प्रसाद ने दृढ़ता के साथ उनका साथ दिया। उन्हें गांधीजी की बुद्धिमत्ता पर पूर्ण विश्वास था।

नमक सत्याग्रह
नमक सत्याग्रह का आरम्भ गांधी जी ने समुद्र तट की ओर यात्रा करके डांडी में किया। जिससे नमक कानून का उल्लंघन वह कर सकें। डांडी, साबरमती आश्रम से 320 किलोमीटर दूर थी। नमक की ज़रूरत हवा और पानी की तरह सब को है और उन्होंने महसूस किया कि नमक पर कर लगाना अमानुषिक कार्य था। यह पूरे राष्ट्र को सक्रिय होने का संकेत था। बिहार में नमक सत्याग्रह का आरम्भ राजेन्द्र प्रसाद के नेतृत्व में हुआ। पुलिस आक्रामण के बावजूद नमक कानून के उल्लघंन के लिये पटना में नखास तालाब चुना गया। स्वयंसेवकों के दल उत्साहपूर्वक एक के बाद एक आते और नमक बनाने के लिये गिरफ्तार कर लिये जाते। राजेन्द्र प्रसाद ने अहिंसक रहने के लिये स्वयंसेवकों से अपील की। कई स्वयंसेवक गम्भीर रूप से घायल हुए।


नमक सत्याग्रह और जेल यात्रा

नमक सत्याग्रह के प्रति पुलिस के अत्याचार इतने बढ़ गये कि जनता में रोष उत्पन्न हो गया क्योंकि वह उलट कर पुलिस को मारती नहीं थी और सरकार को अंत में पुलिस को वहां से हटाना पड़ा। अब स्वयंसेवक नमक बना सकते थे। राजेन्द्र प्रसाद ने उस निर्मित नमक को बेचकर धन इकट्ठा किया। जिस कानून को वह न्यायसंगत नहीं समझते थे उसे तोड़ने से कोई भी चीज उन्हें रोक नहीं सकती थी। एक बार तो वह पुलिस की लाठियों द्वारा गम्भीर रूप से घायल हो गये थे। उन्हें छः महीने की जेल हुई। यह उनकी पहली जेल यात्रा थी।


कवि राजेन्द्र

सन 1934 में भूकम्प पीड़ितों के लिये राहत कार्य करने के दौरान राजेन्द्र प्रसाद के भाई महेन्द्र प्रसाद का निधन हो गया। राजेन्द्र बाबू ने लिखा है, "इस संकट काल में मेरे भाई के देहान्त से मुझे भारी धक्का लगा और अपने मन को सांत्वना देने के लिए मैंने गीतों का सहारा लिया।"


इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष

राजेन्द्र प्रसाद इंडियन नेशनल कांग्रेस के एक से अधिक बार अध्यक्ष रहे। अक्तूबर सन 1934 में बम्बई में हुए इंडियन नेशनल कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता राजेन्द्र प्रसाद ने की थी। उन्होंने गांधी जी की सलाह से अपने अध्यक्षीय भाषण को अन्तिम रूप दिया। सही बात का समर्थन करना सभा की कार्यवाही में प्रतिबिम्बित होता है। जब गांधीजी ने उनसे पूछा कि उन्होंने पंडित मदनमोहन मालवीय जैसे गणमान्य नेता को दूसरी बार बोलने से कैसे मना कर दिया तो उन्होंने उत्तर में कहा कि ऐसा निर्णय उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष होने के नाते लिया था न कि राजेन्द्र प्रसाद के रूप में। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने सक्रीय, गतिशील, अंहिसात्मक, सामूहिक कार्य और अंतहीन बलिदान को स्वाधीनता का मूल्य बताते हुए उन पर जोर दिया। अपनी बीमारी के बावजूद कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से उन्होंने बहुत दौरे किए। कांग्रेस की स्वर्ण जयन्ती (सन 1885-1935) मनाई गई और कांग्रेस अध्यक्ष ने अपने संदेश में कहा, "यह दिन स्मरण करने और अपने निश्चय को दोहराने का है कि हम पूर्ण स्वराज्य लेंगे, जो स्वर्गीय तिलक के शब्दों में हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।" श्री सुभाषचंद्र बोस के अप्रैल सन 1939 में कांग्रेस अध्यक्षता (त्रिपुरी) से त्यागपत्र देने के बाद राजेन्द्र प्रसाद फिर अध्यक्ष चुने गये। वह अपना बहुत सारा समय कांग्रेस के भीतरी झगड़ों को निबटाने मे लगाते। कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें लिखा, "अपने मन में मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम्हारा व्यक्तित्व घायल आत्माओं पर मरहम का काम करेगा और अविश्वास और गड़बड़ के वातावरण को शान्ति और एकता के वातावरण में बदल देगा।"


स्वाधीनता की ओर

हमारे स्वतंत्रता के इतिहास में सन 1939-47 तक के वर्ष बड़े महत्वपूर्ण थे। हम धीरे-घीरे स्व-प्रशासन की ओर बढ़ रहे थे। इस समय साम्प्रदायिक दुर्भावनाओं के रूप में एक उपद्रवी तत्व उत्पन्न हो गया था। यह देखकर राजेन्द्र प्रसाद को बहुत निराशा हुई कि यह भावना बढ़ती जा रही है। जीरादेई में उन्होंने अपने संघर्ष के अन्तिम दौर के दौरान दोनों सम्प्रदायों को शान्त रहने की प्रार्थना करते हुए कहा, "यह तो अनिवार्य है कि दलों में विचारों की भिन्नता हो लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हम एक-दूसरे का सिर फोड़ दें।" मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान को अपनी पार्टी, मुस्लिम लीग का ध्येय घोषित कर दिया था। लेकिन विभाजन का विचार राजेन्द्र प्रसाद के सिद्धांतों और दृष्टिकोण के बिल्कुल विरूद्ध था। उन्हें इस विचार में कोई ऐसा व्यावहारिक हल नहीं मिला। जब भी बिहार में सम्प्रदायिक दंगे होते, राजेन्द्र प्रसाद तुरन्त वहां पहुंचते। उन्हें वहां के ह्रदय विदारक दृश्य देखकर बड़ा धक्का लगा। वह हमेशा विवेकपूर्ण बातें करते।

शान्ति का स्वर
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति पर ब्रिटेन ने महसूस किया कि अब भारत के साथ और अधिक समय चिपके रहना कठिन है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने घोषणा की कि वह भारतीय नेताओं के साथ देश के विधान और सत्ता की तबदीली के बारे में विचार-विमर्श करेंगे। स्वाधीनता निकट ही दिखाई दे रही थी। * सन 1946 में भारत आने वाले ब्रिटिश कैबिनेट मिशन के प्रयास असफल रहे थे। यद्यपि केन्द्रीय और प्रांतीय विधान मंडलों के चुनाव और एक अंतरिम राष्ट्रीय सरकार बनाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया था। * सन 1946 में जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में बारह मंत्रियों के साथ एक अंतरिम सरकार बनी। राजेन्द्र प्रसाद कृषि और खाद्य मंत्री नियुक्त हुए। यह काम उन्हें पसन्द था और वह तुरन्त काम में जुट गये। देश में इस समय खाद्य पदार्थों की बहुत कमी थी और उन्होंने खाद्य पदार्थों का उत्पादन बढ़ाने के लिये एक योजना बनाई। * लेकिन सांम्प्रदायिकता की समस्या को सुलझाया नहीं जा सका। सन 1946 में, कलकत्ता में साम्प्रदायिक दंगे आरम्भ हुये और फिर पूरे बंगाल और बिहार में फैल गये। राजेन्द्र प्रसाद ने जवाहर लाल नेहरू के साथ दंगाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करते हुए, लोगों से अपना मानसिक संतुलन एवं विवेक बनाए रखने की अपील की, "मानवता की मांग है कि पागलपन, लूटमार व आगजनी और हत्याकांड को तुरन्त बन्द किया जाये..."


स्वतंत्रता की प्राप्ति

लम्बे वर्षों तक खून पसीना एक कर के और दुख उठाने के पश्चात 15 अगस्त, सन 1947 को आजादी मिली, यद्यपि राजेन्द्र प्रसाद के अखण्ड भारत का सपना विभाजन से खंडित हो गया था।

संविधान सभा के अध्यक्ष
हमने अपनी स्वतंत्रता प्राप्त कर ली थी परन्तु अभी हमें नये कानून बनाने थे जिससे नये राष्ट्र का शासन चलाया जा सके।
* स्वाधीनता से पहले जुलाई सन 1946 में हमारा संविधान बनाने के लिए एक संविधान सभा का संगठन किया गया।
* राजेन्द्र प्रसाद को इसका अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। यह उनकी निस्स्वार्थ राष्ट्र सेवा के प्रति श्रद्धांजली थी जिसके वह स्वयं मूर्तरूप थे।
* भारतीय संविधान सभा का प्रथम अधिवेशन 9 दिसम्बर सन 1946 को हुआ।>
* संविधान सभा के परिश्रम से 26 नवम्बर सन 1949 को भारत की जनता ने अपने को संविधान दिया जिसका आदर्श था न्याय, स्वाधीनता, बराबरी और बन्धुत्व और सबसे ऊपर राष्ट्र की एकता जिसमें कुछ मूलभूत अधिकार निहित हैं। भविष्य में भारत के विकास की दिशा, पिछड़े वर्ग, महिलाओं की उन्नति और विशेष क्षेत्रों के लिए विशेष प्रावधान हैं। जिससे व्यक्ति की प्रतिष्ठा और अंतर्राष्ट्रीय शान्ति को बढ़ावा देना भी सम्मिलित है।
* भारत 26 जनवरी सन 1950 में गणतंत्र बना और राजेन्द्र प्रसाद उसके प्रथम राष्ट्रपति बने।


जनता के निजी सम्पर्क

राष्ट्रपति बनने पर भी उनका राष्ट्र के प्रति समर्पित जीवन चलता रहा। वृद्ध और नाजुक स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने भारत की जनता के साथ अपना निजी सम्पर्क कायम रखा। वह वर्ष में से 150 दिन रेलगाड़ी द्वारा यात्रा करते और आमतौर पर छोटे-छोटे स्टेशनों पर रूककर सामान्य लोगों से मिलते।


शिक्षा का प्रसार और रचनायें

ज्ञान के प्रति लगाव होने के कारण राजेन्द्र प्रसाद "धनी और दरिद्र दोनों के घरों में प्रकाश लाना चाहते थे।" शिक्षा ही ऐसी चाबी थी जो महिलाओं को स्वतंत्रता दिला सकती थी। शिक्षा का अर्थ था व्यक्तित्व का पूर्ण विकास न कि कुछ पुस्तकों का रटना। वह मानते थे कि शिक्षा जनता की मातृभाषा में होनी चाहिए। यदि हमें आधुनिक विश्व के साथ अपनी गति बनाये रखनी है तो अंग्रेज़ी की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उन्होंने स्वयं भी कई विशिष्ट पुस्तकें लिखीं। जिनमें
* उनकी आत्मकथा (1946),
* चम्पारन में सत्याग्रह (1922),
* इंडिया डिवाइडेड (1946),
* महात्मा गांधी एंड बिहार,
* सम रेमिनिसन्सेज (1949),
* बापू के कदमों में (1954) भी सम्मिलित हैं।


राष्ट्रपति राजेन्द्र

* वे भारत के एकमात्र राष्ट्रपति थे जिन्होंने दो कार्य-कालों तक राष्ट्रपति पद पर कार्य किया।
* राष्ट्रपति के पद पर राजेन्द्र प्रसाद ने सदभावना के लिए कई देशों की यात्रायें भी की। उन्होंने इस आण्विक युग में शान्ति की आवश्यकता पर जोर दिया। राजेन्द्र बाबू का यह विश्वास था कि अतीत और वर्तमान में एक महत्वपूर्ण कड़ी है।
* प्राचीन सभ्यता विरासत में मिलने के कारण वह अतीत को हमारी वर्तमान समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रेरणा का स्रोत समझते थे। हमारी विरासत नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों से परिपूर्ण हैं और हमें भविष्य में आधुनिक समय की चुनौतियों का सामना करने में सहायता कर सकती हैं। प्राचीन और नैतिक मूल्यों में सामंजस्य तो करना ही होगा।