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लोकनायक जयप्रकाश नारायण |
जयप्रकाश नारायण
जीवन-परिचय जयप्रकाश नारायण (11 अक्टूबर, 1902 - 8 अक्टूबर, 1979) भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और राजनेता थे। वे जेपी के नाम से भी जाने जाते है। उन्हें 1970 में इंदिरा गांधी के खिलाफ विपक्ष का नेतृत्व के लिए जाना जाता है। वे समाज-सेवक थे जिन्हें लोकनायक के नाम से भी जाना जाता है।
शिक्षा
पटना मे अपने विद्यार्थी जीवन में जयप्रकाश नारायण ने स्वतंत्रता संग्राम मे हिस्सा लिया।जयप्रकाश नारायण बिहार विद्यापीठ में शामिल हो गए ,[3] युवा प्रतिभाशाली युवाओं को प्रेरित करने के लिए डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और सुप्रसिद्ध गांधीवादी अनुग्रह नारायण सिन्हा,जो गांधी जी के एक निकट सहयोगी रहे और बाद मे बिहार के पहले उप मुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री रह चुके है द्वारा स्थापित किया गया था।1922 मे वे उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका गए, जहाँ उन्होंने 1922-1929 के बीच कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय-बरकली, विसकांसन विश्वविद्यालय में समाज-शास्त्र का अध्यन किया। पढ़ाई के महंगे खर्चे को वहन करने के लिए उन्होंने खेतों, कंपनियों, रेस्टोरेन्टों मे काम किया। वे मार्क्स के समाजवाद से प्रभावित हुए। उन्होने एम.ए. की डिग्री हासिल की। उनकी माताजी की तबियत ठीक न होने की वजह से वे भारत वापस आ गए और पी.एच.डी पूरी न कर सके।
जीवन
उनका विवाह बिहार के मशहूर गांधीवादी बृज किशोर प्रसाद की पुत्री प्रभावती के साथ अक्टोबर 1920 मे हुआ। प्रभावती विवाह के उपरांत कस्तुरबा गांधी के साथ गांधी आश्रम मे रहीं।
१९२९ में जब वे अमेरिका से लौटे, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम तेज़ी पर था। उनका संपर्क गाधी जी के साथ काम कर रहे जवाहर लाल नेहरु से हुआ। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बने। 1932 मे गांधी, नेहरु और अन्य महत्वपूर्ण कांग्रेसी नेताओ के जेल जाने के बाद, उन्होने भारत मे अलग-अलग हिस्सों मे संग्राम का नेतृत्व किया। अन्ततः उन्हें भी मद्रास में सितंबर 1932 मे गिरफ्तार कर लिया गया और नासिक के जेल में भेज दिया गया। यहाँ उनकी मुलाकात एम. आर. मासानी, अच्युत पटवर्धन, एन. सी. गोरे, अशोक मेहता, एम. एच. दांतवाला, चार्ल्स मास्कारेन्हास और सी. के. नारायणस्वामी जैसे उत्साही कांग्रेसी नेताओं से हुई। जेल मे इनके द्वारा की गई चर्चाओं ने कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी (सी.एस.पी) को जन्म दिया। सी.एस.पी समाजवाद में विश्वास रखती थी। जब कांग्रेस ने 1934 मे चुनाव मे हिस्सा लेने का फैसला किया तो जेपी और सी.एस.पी ने इसका विरोध किया।
1939 मे उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज सरकार के खिलाफ लोक आंदोलन का नेतृत्व किया। उन्होंने सरकार को किराया और राजस्व रोकने के अभियान चलाए। टाटा स्टील कंपनी में हड़ताल करा के यह प्रयास किया कि अंग्रेज़ों को इस्पात न पहुंचे। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 9 महिने की कैद की सज़ा सुनाई गई। जेल से छूटने के बाद उन्होने गांधी और सुभाष चंद्र बोस के बीच सुलह का प्रयास किया। उन्हे बंदी बना कर मुंबई की आर्थर जेल और दिल्ली की कैंप जेल मे रखा गया। 1942 भारत छोडो आंदोलन के दौरान वे आर्थर जेल से फरार हो गए।
उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हथियारों के उपयोग को सही समझा। उन्होंने नेपाल जा कर आज़ाद दस्ते का गठन किया और उसे प्रशिक्षण दिया। उन्हें एक बार फिर पंजाब में चलती ट्रेन में सितंबर 1943 मे गिरफ्तार कर लिया गया। 16 महिने बाद जनवरी 1945 में उन्हें आगरा जेल मे स्थांतरित कर दिया गया। इसके उपरांत गांधी जी ने यह साफ कर दिया था कि डा. लोहिया और जेपी की रिहाई के बिना अंग्रेज सरकार से कोई समझौता नामुमकिन है। दोनो को अप्रेल 1946 को आजाद कर दिया गया।
1948 मे उन्होंने कांग्रेस के समाजवादी दल का नेतृत्व किया, और बाद में गांधीवादी दल के साथ मिल कर समाजवादी सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। 19 अप्रेल, 1954 में गया, बिहार मे उन्होंने विनोबा भावे के सर्वोदय आंदोलन के लिए जीवन समर्पित करने की घोषणा की। 1957 में उन्होंने लोकनिति के पक्ष मे राजनिति छोड़ने का निर्णय लिया।
1960 के दशक के अंतिम भाग में वे राजनिति में पुनः सक्रिय रहे। 1974 में किसानों के बिहार आंदोलन में उन्होंने तत्कालीन राज्य सरकार से इस्तीफे की मांग की।
वे इंदिरा गांधी की प्रशासनिक नीतियों के विरुद्ध थे। गिरते स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने बिहार में सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन किया। उनके नेतृत्व में पीपुल्स फ्रंट ने गुजरात राज्य का चुनाव जीता। 1975 में इंदिरा गांधी ने आपात्काल की घोषणा की जिसके अंतर्गत जेपी सहित ६०० से भी अधिक विरोधी नेताओं को बंदी बनाया गया और प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई। जेल मे जेपी की तबीयत और भी खराब हुई। ७ महिने बाद उनको मुक्त कर दिया गया। 1977 जेपी के प्रयासों से एकजुट विरोध पक्ष ने इंदिरा गांधी को चुनाव में हरा दिया।
जयप्रकाश नारायण का निधन उनके निवास स्थान पटना मे 8 अक्टूबर 1979 को हृदय की बीमारी और मधुमेह के कारण हुआ। उनके सम्मान मे तत्कालीन प्रधानमंत्री चरण सिंह ने ७ दिन के राष्ट्रीय शोक का ऐलान किया, उनके सम्मान मे कई हजार लोग उनकी शोक यात्रा मे शामिल हुए।
समग्र क्रांति के नायक जेपी देश में प्रथम गैर-कांग्रसी केन्द्र सरकार के सूत्रधार लोकनायक जयप्रकाश नारायण किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। भारत और भारतीय जनता उनको ”भारत की दूसरी आजादी” के जनक के रूप में देखती है। जयप्रकाश जी भारतीय समाजवाद के प्रथम पांक्ति के नेता थे। यूँ तो समाजवाद का जन्म एवं विकास यूरोप में 19वीं शताब्दी में ही हो गया था लेकिन वर्षों बाद 20वीं शताब्दी में भारत में इसका आगमन हो पाया। भारत में इस विचारधार के प्रणेता आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, आचार्य जे.बी. कृपलानी, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता तथा यूसुफ मेहर अली जैसे उच्चकोटि के नेता थे। भारत में समाजवादियों का पहला अखिल भारतीय सम्मेलन 17 मई, 1934 को पटना में नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में हुआ था, जिसकी सफलता मे जयप्रकाश जी का बहुत बड़ा योगदान था। महान चिन्तक और दूरद्रष्टा जयप्रकाश जी ने 1974 में भारतीय जनता को जगाकर इंदिरा गांधी की संभावित तानाशाही के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार किया था।
सन् 1974 में पटना की एक सभा में उन्होंने कहा था, ”आज हमारे देश की केन्द्रीय सत्ता के द्वारा जो माहौल बनाया जा रहा है, उससे तो यही लगता है कि भारत की जनता इंदिरा गांधी की गलत नीतियों के खिलाफ विद्रोह कर देगी और लोकतान्त्रिक विकल्प के अभाव में सेना देश की सत्ता अपने हाथ में ले सकती है।”
एक सुटृढ़ एवं सचेत लोकतन्त्रवादी होने के नाते जयप्रकाश नारायण कभी नहीं चाहते थे कि सेना देश के भाग्य का फैसला करे, लेकिन उन्हें भय था कि विकल्प के अभाव में ऐसा हो सकता है। उनका यह कथन तब सत्य प्रतीत होने लगा जब तत्कालीन राष्ट्रपति फरूखदीन अली अहमद ने 25 जून, 1975 की रात्रि 12:30 बजे आपातकाल की घोषणा की। वास्तव में आपातकाल के रूप में कायम इंदिरा गांधी की तानाशाही भारत के संसदीय लोकतंत्र के इतिहास का एक काला अध्याय ही है।
स्वतंत्र भारत में कायम इस देशी तानाशाही के खिलाफ जयप्रकाश जी ने जैसा युद्ध छेड़ा यह अपने आप में अभूतपूर्व है। उसका लक्ष्य सम्पूर्ण क्रान्ति के तहत व्यवस्था परिवर्तन और समाज परिवर्तन करना था। लेकिन 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में गठित जनता पार्टी की सरकार ने प्रबुद्धजनों एवं छात्र-छात्राओं के हित में जो कदम उठाने चाहिए, नहीं उठाए गए। इसलिए यह क्रान्ति अधूरी रह गयी।
इस देश में जो उथल-पुथल सन् 1974-75 में शुरू हुई और उसके जो राजनीतिक, सामाजिक परिणाम सन् 1977 में सामने आये, उनका असर दुनिया के तमाम छोटे बड़े मुल्कों पर बेशक पड़ा था।
विश्वभर के राजनेता और लोकनेता, राज्यशास्त्री और समाजशास्त्री, लोकतंत्र के पक्षधर और विरोधी तथा विभिन्न देशों में कायम तानाशाहियों के सूत्रधार और पैरोकार, दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्रिक देश की घटनाओं पर नजर लगाए बैठे थे और 1977 में हुए लोकसभा चुनाव संघर्ष के परिणामों का बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे।
बताया जाता है कि वह ऐसा चुनाव था जिसमें नेता पीछे थे, जनता आगे थी। इस प्रकार उन्होनें देश का करिश्माई नेतृत्व देखा, इंदिराशाही का दौर देखा, युवा एवं छात्र-शक्ति का कमाल देखा और अन्त में भारत के प्रौढ़ मतदाताओं के मतदान का निर्णायक प्रभाव देखा। वह एक अनूठा चुनाव था, जिसमें चुनाव की घोषणा के बाद भी आपात स्थिति लागू रही, केवल चुनाव प्रचार के लिए आपातकालीन प्रतिबन्धों में थोड़ा ढील दी जाती थी।
अगर इस चुनाव में कांग्रेस की जीत होती तो आपातकालीन तानाशाही एक लंबे अरसे तक कायम रह जाती। श्रीमती गाँधी को पूर्ण विश्वास था कि चुनाव में उनकी जीत होगी और उसके फलस्वरूप् एक दलीय व्यवस्था स्थापित करने की दिशा में वे कदम बढ़ाती, इसमें सन्देह नहीं था। आपातकाल की घोषणा के पीछे उनकी यही मंशा थी।
उल्लेखनीय है कि बांग्लादेश के शेख मुजीबुर्रहमान ने लोकतन्त्र की संसदीय प्रणाली को अध्यक्षीय लोकतन्त्र में बदलकर जब एक दलीय व्यवस्था कायम करने की दिशा में कदम बढ़ाया तो इंदिरा जी ने शेख के इस कदम स्वागत किया था।
साढ़े तीन दशक पूर्व जब वे केनिया के दौरे पर गयीं थीं तो वहाँ भी उन्होंने कहा था, ”इस देश को मजबूत बनाने के लिए गरीबी का निराकरण और अशिक्षा का उन्मूलन करना जरूरी है। इसके लिए बेहतर होगा कि विपक्षी दल न रहे।” तभी से एकदलीय व्यवस्था के तहत तानाशाह बनने की आकांक्षा इंदिरा जी के मन में पल रही थी, जिसका प्रस्फुटन 25 जून, 1975 को हुआ।
जयप्रकाश नारायण इंदिरा गांधी की गतिविधियों पर नजर रखे हुए थे। अत: उन्होंने 1974 में छात्र एवं युवाओं को जगाया, उनको संघर्ष के लिए ललकारा। जयप्रकाश जी को जबाब देने के लिए श्रीमती गांधी ने आपातकाल लगाया, लेकिन 1977 के ऐतिहासिक चुनाव परिणामों ने उनकी अधिनायकवादी आकाक्षांओं पर पानी फेर दिया।
संपूर्ण क्रांति के जनक
जयप्रकाश नारायण का नाम जब भी जुबां पर आता है तो यादों में रामलीला मैदान की वह तस्वीर उभरती है जब पुलिस जयप्रकाश को पकड़ कर ले जाती है और वह हाथ ऊपर उठाकर लोगों को क्रांति आगे बढ़ाए रखने की अपील करते हैं. जयप्रकाश नारायण ही वह शख्स थे जिनको गुरू मानकर आज के अधिकतर नेताओं ने मुख्यमंत्री पद तक की यात्रा की है. लालू यादव, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान, जार्ज फर्नांडिस, सुशील कुमार मोदी जैसे तमाम नेता कभी जयप्रकाश नारायण के चेले माने जाते थे लेकिन सत्ता के लोभ ने उन्हें जयप्रकाश नारायण की विचारधारा से बिलकुल अलग कर दिया.
यह जयप्रकाश नारायण ही थे जिन्होंने उस समय की सबसे ताकतवर नेता इंदिरा गांधी से लोहा लेने की ठानी और उनके शासन को हिला भी दिया. लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि आज उनके आदर्शों की उनकी ही पार्टी में कोई पूछ नहीं है. सभी जानते हैं अगर इतिहास में जयप्रकाश नारायण नाम का इंसान नहीं होता तो भारतीय जनता पार्टी का कोई भविष्य ही नहीं होता.
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