बाबू देवकीनन्दन खत्री |
"जितने हिन्दी पाठक उन्होंने (बाबू देवकीनन्दन खत्री ने) उत्पन्न किये उतने किसी और ग्रंथकार ने नहीं ।" ( आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, काशी, संवत् २०१२ वि॰, पृ॰ ४९९) ।
जीवनी
देवकीनन्दन खत्री जी का जन्म 29 जून 1861 (आषाढ़ कृष्णपक्ष सप्तमी संवत् 1918) शनिवार को पूसा, मुजफ्फ़रपुर, बिहार में हुआ था। उनके पिता का नाम लाला ईश्वरदास था। उनके पूर्वज पंजाब के निवासी थे तथा मुग़लों के राज्यकाल में ऊँचे पदों पर कार्य करते थे। महाराज रणजीत सिंह के पुत्र शेरसिंह के शासनकाल में लाला ईश्वरदास काशी में आकर बस गये। देवकीनन्दन खत्री जी की प्रारम्भिक शिक्षा उर्दू-फ़ारसी में हुई थी। बाद में उन्होंने हिंदी, संस्कृत एवं अंग्रेजी का भी अध्ययन किया।
आरंभिक शिक्षा समाप्त करने के बाद वे गया के टेकारी इस्टेट पहुंच गई और वहां के राजा के यहां नौकरी कर ली. बाद में उन्होंने वाराणसी में एक प्रिंटिंस प्रेस की स्थापना की और 1883 में हिंदी मासिक 'सुदर्शन' की शुरुआत की.
देवकीनन्दन खत्री जी का काशी नरेश ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह से बहुत अच्छा सम्बंध था। इस सम्बंध के आधार पर उन्होंने चकिया और नौगढ़ के जंगलों के ठेके लिये। देवकीनन्दन खत्री जी बचपन से ही सैर-सपाटे के बहुत शौकीन थे। इस ठेकेदारी के काम से उन्हे पर्याप्त आय होने के साथ ही साथ उनका सैर-सपाटे का शौक भी पूरा होता रहा। वे लगातार कई-कई दिनों तक चकिया एवं नौगढ़ के बीहड़ जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की खाक छानते रहते थे। कालान्तर में जब उनसे जंगलों के ठेके छिन गये तब इन्हीं जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की पृष्ठभूमि में अपनी तिलिस्म तथा ऐयारी के कारनामों की कल्पनाओं को मिश्रित कर उन्होंने चन्द्रकान्ता उपन्यास की रचना की।
बाबू देवकीनन्दन खत्री ने जब उपन्यास लिखना चालू किया था उस जमाने में अधिकतर हिन्दू लोग भी उर्दूदाँ ही थे । ऐसी परिस्थिति में खत्री जी का मुख्य लक्ष्य था ऐसी रचना करना जिससे देवनागरी हिन्दी का प्रचार-प्रसार हो । यह उतना आसान कार्य नहीं था । परन्तु उन्होंने ऐसा कर दिखाया । चन्द्रकान्ता उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ कि जो लोग हिन्दी लिखना-पढ़ना नहीं जानते थे या उर्दूदाँ थे, उन्होंने केवल इस उपन्यास को पढ़ने के लिए हिन्दी सीखी । इसी लोकप्रियता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने इसी कथा को आगे बढ़ाते हुए दूसरा उपन्यास "चन्द्रकान्ता सन्तति" लिखा जो "चन्द्रकान्ता" की अपेक्षा कई गुणा रोचक था । इन उपन्यासों को पढ़ते वक्त लोग खाना-पीना भी भूल जाते थे । इन उपन्यासों की भाषा इतनी सरल है कि इन्हें पाँचवीं कक्षा के छात्र भी पढ़ लेते हैं । पहले दो उपन्यासों के २००० पृष्ठ से अधिक होने पर भी एक भी क्षण ऐसा नहीं आता जहाँ पाठक ऊब जाए ।
मुख्य रचनाएँ

चन्द्रकान्ता सन्तति (१८९४-१९०४): चन्द्रकान्ता की अभूतपूर्व सफलता से प्रेरित हो कर देवकीनन्दन खत्री जी ने चौबीस भागों वाली विशाल उपन्यास चंद्रकान्ता सन्तति की रचना की। उनका यह उपन्यास भी अत्यन्त लोकप्रिय हुआ।
भूतनाथ (१९०७-१९१३)(अपूर्ण): चन्द्रकान्ता सन्तति के एक पात्र को नायक का रूप देकर देवकीनन्दन खत्री जी ने इस उपन्यास की रचना की। किन्तु असामायिक मृत्यु के कारण वे इस उपन्यास के केवल छः भागों को लिख पाये उसके बाद के शेष पन्द्रह भागों को उनके पुत्र दुर्गाप्रसाद खत्री ने लिख कर पूरे किये। 'भूतनाथ' भी कथावस्तु की अन्तिम कड़ी नहीं है । इसके बाद बाबू दुर्गा प्रसाद खत्री लिखित रोहतासमठ (दो खंडों में) आता है । कथा यहाँ भी समाप्त नहीं होती । प्रकाशक (लहरी बुक डिपो, वाराणसी) से पूछताछ करने पर पता चला कि इस कथा की अन्तिम कड़ी शेरसिंह लिखी जा रही है ।
अन्य रचनाएँ
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