राजेन्द्र प्रसाद_2

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद.
बचपन से ही परिश्रमी
स्कूल के दिन परिश्रम और मौज-मस्ती का मिश्रण थे। उन दिनों में यह परम्परा थी कि शिक्षा का आरंभ फ़ारसी की शिक्षा से किया जाए। राजेन्द्र प्रसाद पांच या छह वर्ष के रहे होंगे जब उन्हें और उनके दो चचेरे भाइयों को एक मौलवी साहब पढ़ाने के लिए आने लगे। शिक्षा आरंभ करने वाले दिन पैसे और मिठाई बांटी जाती है। लड़कों ने अपने अच्छे स्वभाव वाले मौलवी साहब के साथ शैतानियां भी की मगर मेहनत भी कस कर की। वे सुबह बड़ी जल्दी उठ कर कक्षा के कमरे में पढ़ने के लिए बैठ जाते। यह सिलसिला काफी देर तक चलता और बीच में उन्हें खाने और आराम करने की छुट्टी मिलती। वास्तव में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि इतने छोटे बच्चे बहुत देर तक ध्यान लगा कर पढ़ाई कर सकें। ये विशेष गुण जीवनपर्यन्त उनमें रहे और इन्हीं ने उन्हें विशिष्टता भी दिलाई।

विश्वविद्यालय की शिक्षा
राजेन्द्र प्रसाद अपने नाज़ुक स्वास्थ्य के बावजूद भी एक गंभीर एवं प्रतिभाशाली छात्र थे और स्कूल व कॉलेज दोनों में ही उनका परिणाम बहुत ही अच्छा रहा। कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में वह प्रथम रहे और उन्हें तीस रूपये महीने की छात्रवृत्ति भी मिली। उन दिनों में तीस रूपये बहुत होते थे। लेकिन सबसे बड़ी बात थी कि पहली बार बिहार का एक छात्र परीक्षा में प्रथम आया था। उनके परिवार और उनके लिए यह एक गर्व का क्षण था। सन 1902 में राजेन्द्र प्रसाद ने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कालेज में प्रवेश लिया। यह सरल स्वभाव और निष्कपट युवक बिहार की सीमा से पहली बार बाहर निकल कर कलकत्ता जैसे बड़े शहर में आया था। अपनी कक्षा में जाने पर वह छात्रों को ताकता रह गया। सबके सिर नंगे थे और वह सब पश्चिमी वेषभूषा की पतलून और कमीज़ पहने थे। उन्होंने सोचा ये सब एंग्लो-इंडियन हैं लेकिन जब हाज़िरी बोली गई तो उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि सबके नाम हिन्दुस्तानी थे। राजेन्द्र प्रसाद का नाम हाज़िरी के समय नहीं पुकारा गया तो वह बहुत हिम्मत करके खड़े हुए और प्राध्यापक को बताया। प्राध्यापक उनके देहाती कपड़ों को घूरता ही रहा। वह सदा की तरह कुर्ता-पाजामा और टोपी पहने थे। 'ठहरो। मैंने अभी स्कूल के लड़कों की हाज़िरी नहीं ली,' प्राध्यापक ने तीखे स्वर में कहा। वह शायद उन्हें एक स्कूल का लड़का समझ रहा था। राजेन्द्र प्रसाद ने हठ किया कि वह प्रेसीडेंसी कालेज के छात्र हैं और अपना नाम भी बताया। अब कक्षा के सब छात्र उन्हें घूरने लगे क्योंकि यह नाम तो उन दिनों सबकी ज़ुबान पर था। उस वर्ष राजेन्द्र प्रसाद नाम का लड़का विश्वविद्यालय में प्रथम आया था। ग़लती को तुरन्त सुधारा गया और इस तरह राजेन्द्र प्रसाद का कॉलेज जीवन आरम्भ हुआ।
आत्मविश्वासी राजेन्द्र
वर्ष के आख़िर में एक बार फिर ग़लती हुई। जब प्रिंसिपल ने एफ. ए. में उत्तीर्ण छात्रों के नाम लिए तो राजेन्द्र प्रसाद का नाम सूची में नहीं था। राजेन्द्र प्रसाद को अपने कानों पर विश्वास नहीं आया। क्योंकि इस परीक्षा के लिए उन्होंने बहुत ही परिश्रम किया था। आख़िर वह खड़े हुए और सम्भावित ग़लती की ओर संकेत किया। प्रिंसिपल ने तुरन्त उत्तर दिया कि वह फ़ेल हो गए होंगे। उन्हें इस मामले में तर्क नहीं करना चाहिए। 'लेकिन, लेकिन सर', राजेन्द्र प्रसाद ने हकलाकर, घबराते हुए कहा। इस समय उनका ह्रदय धक-धक कर रहा था। 'पांच रूपया जुर्माना' क्रोधित प्रिंसिपल ने कहा। राजेन्द्र प्रसाद ने साहस कर फिर बोलना चाहा। 'दस रूपया जुर्माना', लाल-पीला होते हुए प्रिंसिपल चिल्लाया। राजेन्द्र प्रसाद बहुत घबरा गए। अगले कुछ क्षणों में जुर्माना बढ़कर 25 रूपये तक पहुंच गया। एकाएक हैड क्लर्क ने उन्हें पीछे से बैठ जाने का संकेत किया। एक ग़लती हो गई थी। पता चला कि वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद कक्षा में प्रथम आए थे। उनके नम्बर उनकी प्रवेश परीक्षा से भी इस बार बहुत अधिक थे। प्रिंसिपल नया था। इसलिए उसने इस प्रतिभाशाली छात्र को नहीं पहचाना था। राजेन्द्र प्रसाद की छात्रवृत्ति दो वर्ष के लिए बढ़ाकर 50 रूपया प्रति मास कर दी गई। उसके बाद स्नातक की परीक्षा में भी उन्हें विशिष्ट स्थान मिला। यद्यपि वह सदा विनम्र बने रहे मगर उन्होंने यह महत्वपूर्ण पाठ पढ़ लिया था कि अपने संकोच को दूर कर स्वयं में आत्मविश्वास पैदा करना ही होगा। अपने कॉलेज के दिनों में उनको सदा योग्य अध्यापकों का समर्थन मिला, जिन्होंने अपने छात्रों को आगे बढ़ने की प्रेरणा एवं उच्च आचार-विचार की शिक्षा दी।
जागरूकता
उन दिनों बंगाल में सांस्कृतिक और सामाजिक जागृति हो रही थी। भारतीय इतिहास में यह संकट का समय था। सन 1905 में हुए बंगाल के विभाजन ने जनता में राजनैतिक जागरूकता का विकसित कर दिया था। राजेन्द्र प्रसाद एक बार की बात स्मरण करके कहते हैं, 'उन दिनों का वातावरण...नये जीवन और नई आंकाक्षाओं से भरा हुआ था। मैं उनके प्रभाव से बच नहीं पा रहा था।' वह डॉन सोसाइटी के सदस्य बन गये जो छात्रों को अपनी भारतीय विरासत पर गर्व करना सिखाती थी। इसके बाद जल्दी ही राजेन्द्र प्रसाद सार्वजनिक और सामाजिक कार्यों की ओर आकर्षित हुए। उन्होंने कलकत्ता में एक 'बिहारी क्लब' बनाया जिसमें आरंभ में बिहार की स्थिति सुधारने और वहां के छात्रों की मदद करने का कार्य किया। बाद के वर्षों में यह क्लब कल्याण कार्यों का मंच बना। वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद के सार्वजनिक जीवन के लिए यह अच्छा प्रशिक्षण था। बंगाल का विभाजन लोगों में बढ़ती हुई राष्ट्रीयता की भावना को जानबूझकर दिया गया धक्का माना गया। इसने तिलक, लाला लाजपत राय और विपिनचंद्र पाल जैसे नेताओं द्वारा आरंभ किये गए स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन-(भारतीय चीज़ों का इस्तेमाल और ब्रिटिश चीज़ों का बहिष्कार)-ने आग में घी का काम किया। उन्होंने इस आंदोलन को कुछ पाश्चात्य रंग में रंगे भारतीयों के हाथों से निकालकर जनता तक पहुंचाया। इस आंदोलन के कारण लोगों ने भारतीय वस्तुओं पर गर्व करना सीखा और लोग भारतीय उद्योग को प्रोत्साहन देने लगे।
स्वदेशी आंदोलन
राजेन्द्र प्रसाद भी नये आंदोलन की ओर आकर्षित हुए। अब पहली बार उन्होंने पुस्तकों की तरफ कम ध्यान देना शुरू किया। स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन ने उनके छात्रालय के छात्रों का बहुत प्रभावित किया। उन्होंने सब विदेशी कपड़ों को जलाने की क़सम खाई। एक दिन सबके बक्से खोल कर विदेशी कपड़े निकाले गये और उनकी होली जला दी गई। जब राजेन्द्र प्रसाद का बक्सा खोला गया तो एक भी कपड़ा विदेशी नहीं निकला। यह उनके देहाती पालन-पोषण के कारण नहीं था। बल्कि स्वतः ही उनका झुकाव देशी चीज़ों की ओर था। गोपाल कृष्ण गोखले ने सन 1905 में 'सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी' आरम्भ की थी। उनका ध्येय था ऐसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक तैयार करना जो भारत में संवैधानिक सुधार करें। इस योग्य युवा छात्र से वह बहुत प्रभावित थे और उन्होंने राजेन्द्र प्रसाद को इस सोसाइटी में शामिल होने के लिये प्रेरित किया। लेकिन परिवार की ओर से अपने कर्तव्य के कारण राजेन्द्र प्रसाद ने गोखले की पुकार को उस समय अनसुना कर दिया। लेकिन वह याद करते हैं,- 'मैं बहुत दुखी था।' और जीवन में पहली बार बी. एल. की परीक्षा में वह कठिनाई से पास हुए थे।
कानून में मास्टर डिग्री
वह अब वकालत की दहलीज पर खड़े थे। उन्होंने जल्दी ही मुकदमों को अच्छी प्रकार और ईमानदारी से करने के लिये ख्याति पा ली। सन 1915 में कानून में मास्टर की डिग्री में विष्टिता पाने के लिए उन्हें सोने का मेडल मिला। इसके बाद उन्होंने कानून में डॉक्टरेट भी कर ली। अब वह डा. राजेन्द्र प्रसाद हो गये। इन वर्षों में वह कई प्रसिद्ध वकीलों, विद्वानों और लेखकों से मिले। वह भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी बन गये। उनके मस्तिष्क में राष्ट्रीयता ने जड़े जमा ली थी।

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